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Saturday 11 January 2014

सुअर की औलाद

By -  Siddharth Bharodiya

सुअर की औलाद क्यों लिखा ? 

बचपन से ही धर्मेन्द्र मेरे आदर्ष हिरो रहे हैं । गुन्डों के साथ लडते समय उनको गुस्सा आता था तो ऐसा कुछ बोलते थे, मुझे खाली याद ही है जीवनमें नही उतारा है । फिर भी ऐसा लिखना पडा । आप को भी समज में आ जायेगा कि क्यों लिखा और आप भी बोलेन्गे सुवर की औलाद ! 

इसाईयों की एक कहानी में कहा गया है की इसा मसिह अपने काफिले के साथ कहीं जा रहे थे तो रास्ते में एक पापात्मा मिली । पापात्मा उन के चरणो में पड गई, कहने लगी मुझे मारना नही । इसाने उसे मारा नही पर बाजु में टहलते हुए सुवर में उसे डाल दिया । तब से बेचारा सुवर बदनाम हो गया ।

 कुसरत की भूलों को सुधारते सुधारते आदमी सभ्यता बनाता रहा, कुदरत की कुछ भूलें सुधारना आदमी के बसमें नही था तो उसे स्विकारते हुए आगे बढा । कुदरतने आदमी को प्राणी के रूपमें ही बनाया था और जंगली प्राणी की तरह ही जीना था लेकिन इस बात को आदमी ने नही स्विकार किया और सदियों तक कुदरत से लडते हुए सभ्य आदमी बन गया, कुदरत की दी हुई एक अमुल्य भेंट बन गया, आदमी ने अपने लिए आदमी होनेका गौरव प्राप्त कर लिया, कुदरत की इस भूल (हम मानव की द्रष्टिसे) को सुधार लिया । कुदरत की दूसरी भूल, आदमी आदमी में फर्क, फर्क ताकत का, बुध्धि का, बरताव का, जेन्डर का, इस भूल के आगे आदमी बेबस था, उसे स्विकारते हुए उस से निपटने के अलग से रास्ते खोजता रहा । 

सृष्टि का क्रम चलाने के लिए हर प्राणी को काम करना होता है, खाने का प्रबंध का काम, बचने के लिए लडाई का काम, नयी जनरेशन पैदा करने का काम, मानव समाज चलाने के लिए मानवों को भी काम करना होता है । मानव की अलग अलग क्षमताओं के कारण विसंगति पैदा होती थी । एक मानव का काम दूसरा नही कर सकता था, सबकी बुध्धि या शारीरिक शक्ति एक नही थी । सब से प्रथम कुटुम्ब प्रथा बना कर पूरुष मानव और स्त्री मानव को जोड दिया, शक्ति के अनुसार ही काम करने के लिए आदमीयों को प्रोत्साहित किया जाने लगा और सब को एक दूसरे के सहयोग से, एक दूसरे के पूरक बन कर जीना और काम करना सिखाया गया, बिलकुल अशक्तों के लिए धर्म में ही दया-दान का प्रावधान रख्खा गया जीस से वो भूख से ना मरे, दूसरों की मेहनत पर वो भी अपना जीबन पूरा कर लें । बुढे मानव प्राणी को कुटुम्ब प्रथाने ही बचा लिया ।

चंचल मानव मन, स्वार्थ, विचारभेद, असंतोष आदी कारणों से समस्याएं होती रही लेकिन मोटे तौर पर ठीक ही चला आ रहा था ।

मानव जात की इस सिस्टम को तोडने के लिए, आदमी का आदमी होने का गर्व और गरिमा तोडने के लिए दानव समाजने सामाजिक डार्विनवाद की नीतियां तो पहले से ही चला रख्खी थी पर उस में वैज्ञानिक द्रष्टिकोण पैदा करने के लिए चार्ल्स डार्विन को वैज्ञानिक बना दिया । और उन के द्वारा कहलाया गया की आदमी के पूरखें बंदर थे । 

डार्विन की प्रथम थियरी On the Origin of Species (1859) में मानव विकास की बात का अतापता ही नही था, उसका ध्यान पौधों और जानवरों के विकास पर ही केंद्रित था । बादमें उसने The Descent of Man (1871) द्वारा प्राकृतिक चयन का अपना सिद्धांत मानव के लिए चलाया । आलोचकों के अनुसार यह वो काम था जो घर और विदेश में साम्राज्यवाद की क्रूर सामाजिक नीतियों को न्यायोचित ठहरा देता है । सबसे पहले सामाजिक डार्विनवाद के साथ अंग्रेज समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेंसर जुडा था । सामाजिक जन समूहों के बीच की स्पर्धाओं से पैदा होते परिणाम को स्पेंसरने " योग्यतम की उत्तरजीविता " के साथ जोडा ।  उस के सोशल स्टैटिक्स ( 1850) और अन्य कार्य में, उसने कहा कि स्पर्धा से ही सामाजिक विकास के माध्यम से स्वचालित रूप से मानव इतिहास में समृद्धि और अद्वितीय व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विकास होगा । सरकारी प्रोग्राम से गरीबों को मदद नही करनी चाहीए, समाज के भले के लिए उनको मरने देना चाहिए । 

स्पेंसरने 1850 अपना सिध्धांत बताया, डार्विनने २१ साल बाद  1871 वो सिध्धांत को अपनाया । समाजशास्त्री का सिध्धांन्त एक वैज्ञानिकने मान लिया ! कारण क्या था ? कारण थे धन माफिया । बेंकर माफियाओं ने १८५० के दशक में शेरबाजार के सटोरिये डार्विन को मिशीनरियों के साथ उन की नौका में देश विदेश की सफर कराई, उसने तराह तराह के पशुपक्षी देखे, अभ्यास किया और ऐसे उसे विज्ञानिक डार्विन बनाया और उसकी थीसीस की बूक छपवाई । उस बूक का पैसा ज्यादा नही मिला पर बादमें पूरी जिन्दगी उसे टीप मिलती रही की कौन से शेर खरीदते रहना है । बादमें उस शेर बाजार की कमाई पर ८ नौकरों के साथ बडे से महलों जैसे मकान में रहा ।

डार्विन क्या बतायेगा की आदमी प्राणी है, वो तो जाहिर बात है आदमी जड या वनस्पति नही प्राणी है, सारी दुनिया जानती थी । उसने आदमी को बंदर की औलाद साबित करने की कोशीश की । जब जीनेटिक सायन्स आगे बढा, डीएनए की खोज की गई तो डार्विन जुठा साबित हो गया । जुठा तो था ही, जुठे लोगों ने खडा किया था तो जुठा साबित होना ही था । डार्विनवादी डीएनए के विज्ञानिकों के सवालों के जवाब नही दे पा रहे हैं । डार्विनवादियों की बातें सुन कर इस्कोन के श्री प्रभुपाद इतने गुस्सा हो गये थे कि उन्होंने डार्विन को "रास्कल" तक कह डाला था ।   

Prabhupada: Darwin is a rascal. What is his theory? We kick on your face. [expose your bogus philosophy] That's all. That is our philosophy. The more we kick on Darwin's face, the more advanced in spiritual consciousness. He has killed the whole civilization, rascal. Where is that evidence, creation of life from matter? Is there any evidence in the history? 

Dr. Hauser: No, but as we know, the evolution of life has gone through different stages of... How do you...?

Prabhupada: Darwin's theory. Do you mean to say, Darwin's theory? 

Dr. Hauser: Yes, yes. 

Prabhupada: That is nonsense. Darwin was a number-one nonsense. Yes. Rascal. He has confused the whole world. 

Dr. Hauser: Hmm. Why...?

Prabhupada: Evolution of matter. Matter cannot evolve. That is not possible. 

Dr. Hauser: But evolution of life... 

Prabhupada: What is that life? That is different from matter. That is a different energy. That I am speaking. Matter is... Life is the origin of matter. The evolution is not of the matter, but of the life. That Darwin does not know. Therefore I say nonsense. He does not know that.

Dr. Hauser: Yes. But I feel in the... 

Prabhupada: Just like this is an apartment. So from this apartment, you go to another apartment. So it does not mean that this apartment has evolved to that apartment. I, the person, I create that apartment, or I prefer that apartment. Not that this apartment has evolved into that apartment. 

Dr. Hauser: Yes, I can see what you mean. Yes. 

Prabhupada: Yes. Darwin's nonsense is there. He is changing the apartment. Apartment is becoming a different apartment. That is not a fact. Just try to understand. This room cannot develop into another room. But I, the resident of this room, I can go from this apartment to another apartment. Or I can create another apartment. This is evolution.

[Srila Prabhupada from Room Conversation, with Dr. Christian Hauser, Psychiatrist, September 10, 1973, Stockholm]

http://www.prabhupada.org.uk/articles1/he_has_killed.htm  

सामाजिक डार्विनवाद (बाजारवाद)

सामाजिक डार्विनवाद 19 वीं सदी में चलाये गये सामाजिक डार्विनवाद में साबित करना था या एक विचार स्विकार्य बनाना था कि पशुओं और पौधों की तरह मानव जीवन में भी अस्तित्व के संघर्ष और प्रतिस्पर्धा में प्राकृतिक चयन के परिणाम " योग्यतम की उत्तरजीविता" ("survival of the fittest") का नियम लागू होता है ।

 सामाजिक डार्विनवादियोंने ब्रिटिश प्रकृतिवादी चार्ल्स डार्विन द्वारा विकसित विकास के सिद्धांतों (theories of evolution) का आधार लिया । कुछ सामाजीक डार्विनवादियों ने खोज निकाला कि सरकारों को गरीबी जैसे सामाजिक बुराईयों के इलाज या ऐसे ही अन्य कारणों के लिए अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के प्रयास से मानव स्पर्धा के साथ हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । इस के बदले, "अहस्तक्षेप" (laissez-faire)   पोलिटिकल और आर्थिक सिस्टम बनाइ गई । चलता है, करेन्गे, सब का भला होगा ! सामाजिक और कामधंधों की बाबतों में स्वार्थ और स्पर्धा पर जोर दिया गया । वैसे तो सामाजिक डार्विनवादी कहते हैं कि हम "जंगल के कानून" की वकालत नही करते लेकिन उन के ज्यादातर तर्क से व्यक्ति, जातियां, राष्ट्र की शक्ति और सत्ता में असंतुलन पैदा होता है, कुछ लोग ज्यादा फिट है सर्वाईव करने के लिए दूसरों की तुलना में । 

बायोलोजी, स्पर्धा, संघर्ष जैसे शब्दों के आधार पर जो मानव समाज की व्याख्या करते हैं वे सभी सामाजिक डार्विनवादी है । अतीत और वर्तमान की सामाजिक नीतियां और सिध्धांत को हटा कर बायोलोजि की जैविक खोज के कारणों को आगे ला कर सरकारों की शक्ति को कम करना इन सामाजिक डार्विनवादियों की विशेषता है । सामाजिक डार्विनवाद की अवधारणा के पिछे  नस्लवाद, साम्राज्यवाद , और पूंजीवाद  है । यह करुणा और सामाजिक जिम्मेदारी की अस्वीकृति है । 

स्पेंसर की 1883 में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान उस का मेजबान स्टील निर्माता एंड्रयू कार्नेगी था । उसे बुद्धिजीवियों और कुछ व्यापारियों का काफी समर्थन मिला । 1880 के दशक का सबसे प्रमुख अमेरिकी सामाजिक डार्विनवादी विलियम ग्राहम समर कई मौकों पर  दर्शकों को बताता रहता था कि " योग्यतम की उत्तरजीविता " के सिध्धांत का कोई विकल्प नहीं है । उस के आलोचक कहते थे समर "डॉग-इट-डॉग" ( कुत्ता कुत्ते को खाये) जैसी दमनकारी सामाजिक नीतियों की वकालत कर के उसे जायज बताता है ।

survival of the fittest के नियमसे अमरिका और युरोप के देश तिसरी दुनिया के नागरिकों को लूटकर तगडे बन गये । अपने घरमें भी छोटे छोटे धंधे बंद हो गये और राक्षसी कद की मल्टिनेशनल कंपनियां बन गई । नागरिक नौकरी करने पर मजबूर हो गये । दुनिया पर लडाइयां थोपते रहे, दूसरे देशों को कमजोर करते रहे, खूद कातिल हथियार बनाते रहे और दूसरे देशों को रोकते रहे । उन के इस नियम में लाखों का नर संहार जायज है । स्पर्धामें देश या नागरिक या धंधे रोजगार टिक नही सकते उसका मिट जाना जायज है । मजदूर काम नही कर सकता तो उसे मरने देना चाहिए । किसान किसानी के धंधे में बाजार का सामना नही कर सकता तो आत्महत्या कर ले वही अच्छा है ।

भारत की खिचडी समाजवादी नीति में ये "लेजेज फेर" नीति लागू होती है । भारत में विदेशी बडी कंपनियों का आगमन और भारत की अपनी कंपनियों का बंद हो जाना या बीक जाना एक बडा सबूत है । किसानो को अपनी हालत पर छोड देना, उनके उत्पादन को बाजार के सट्टेमें चडाकर किसान विरोधी बाजार का रूख कर देना दूसरा सबूत है । सशक्त होते मध्यमवर्ग को अशक्त करने के लिए मेहन्गाई और टेक्स के बोज तले दबा देना तिसरा सबूत है । लिस्ट बहुत लंबा है ।    

डार्विनवाद और मानव सुधारणा 

डार्विन से पहले फ्रांसिस गॅल्टन ने एक आंदोलन शुरू किया था "युजेनिक्स" के लिए (eugenics), यह एक "विज्ञान" है  मानव स्टोक में सुधार लाने के लिए । ये लोग मानव समुह को मानवों का स्टोक मानते थे, वो मालिक और दुनिया की जनता उन की संपत्ति, उन के लिए "मानव संसाधन" । यकिन ना हो तो पूछ लेना भारत के "मानव संसाधन" मंत्री से वो क्या समजते हैं भारत की जनता को । इस लिए वो मानवजात की गुणवत्ता में सुधार लाना चाहते हैं ।     

युजनिक्स की काली छाया लगभग सभी समसामयिक घटनाओं पर घूमता रहा है । युजेनिक्स 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में लोकप्रिय हुए सामाजिक डार्विनवाद से और मजबूत हुआ । उस के वाद की नितियां या सच कहो तो अनितियां तो सदियों से चली आ रही थी, बलवान निर्बल की स्पर्धा, प्रतियोगिता और असमानता, " योग्यतम की उत्तरजीविता " । डार्निन को पैदा करना और उन अनितिओं के वाद को डार्विन उपमा देना जगत की जनता को विज्ञान की नजर से स्विकृत कराना था ।  कई सामाजिक डार्विनिस्टने जीव विज्ञान को ही भाग्य, अयोग्यता, " कंगालीयत, मानसिक बीमारी जैसे सामाजिक रूप से हानिकारक लक्षण का एक व्यापक स्पेक्ट्रम बना लिया था और आनुवंशिकता के साथ जोड दिया था ।

१८८३ मे, मानव जाती को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए, अनचाही मानवजातियों से छुटकारा पाने और मनचाही मानवजातियों को मल्टिप्लाय करने के विचारों को प्रमोट करने के लिए अंग्रेज विज्ञानी, चार्ल्स डार्विन के चचेरे भाई फ्रांसिस गॅल्टन ने युजनिक्स शब्द को उछाला था । गॅल्टन के जमाने में आनुवंशिकी के विज्ञान को अभी तक समझा नहीं गया था । फिर भी, जब किसान बीजों के चयन से पौधों में सुधार ला सकता है और खास विशेषताओं से मजबूत जानवरों की अच्छी  नस्लें प्राप्त कर सकता है तो मानवों की नसल भी नही सुधारी जा सकती ?

गोरी प्रजाने अपने आप को सर्व श्रेष्ठ प्रजा मान लिया और अपने हाथमें बाकी प्रजा को सुधारने का ठेका ले लिया ।   

Take up the White Man's burden—

दुनिया की दूसरी प्रजा गोरी प्रजा पर का बोज है, यातो उसे सुधारेन्गे या मार देन्गे । उन दिनों  एक गीत भी प्रसिध्ध हुआ था "टेइक अप ध वाईट मेन्स बर्डन" । दूसरी प्रजा को आबादी बढाने के हक्क नही, दूसरी प्रजा गोरों की संपत्ति मात्र है, वो प्रजा और उन के प्रदेश गोरे लोगों के गुलाम है ।

गत ५० सालमें आदमी के जीन्स में रहे डीएनए के मोलेक्युलर खोज लिए हैं, समज लिए हैं, उसमें छेडखानी करना सिख गये हैं, आज प्रयोगशाला में दो दो नारियों और तिन तिन पुरुषों के जीन्स मिलाकर मानवों की एक नयी ही प्रजाति पैदा करने की कोशीश हो रही है । 

सामाजिक डार्विनवाद और साम्यवाद 

साम्यवादी मानते हैं कि आदमी सिर्फ प्राणी है, जन समुह भेंड की टोली है । ( पीपल को शीपल कहते हैं ) । लेकिन आदमी में धर्म और संस्कार है इसलिए आदर्ष भेंड नही है । विद्रोह करता है बराबर कंट्रोल नही हो रहा है ।

मानव जात को कंट्रोल करने के लिए धनमाफिया यहुदियोंने अपनी विश्व संस्था युएन द्वारा योजना बनाई है ।

(१) मानवी जब जानवर है तो उसे धर्म और संस्कार की जरूरत नही ।

सारी मानव जात से अपने धर्म और संस्कार हटा लिये जाय । आदमी को आजादी के ख्वाब दिखा दिखा कर उसे बिलकुल आजाद खयाली और निरंकुश बना दिया जाए जीस से वो विद्रोह कर के अपनी सभ्यता के सारे बंधन को तोड सके । इतना निरंकुश बना दो कि धर्म के उपर सब से बडा प्रहार सेक्स के द्वारा हो सके । पूरी दुनिया को सेक्समय कर दो धर्म अपने आप भाग जायेन्गे । आदमी को इतना स्वार्थी और लालची बना दो कि छोटी से लालच देने पर कुत्ता बन जाये । 

(२) जब आदमी जानवर है तो उसे समाज और कुटुंब की जरूरत नही ।

कुटुंब के कारण ही आदमी में धन की लालच ज्यादा होती है । कुटुंब के कारण ही वो धन बचाता है, घरमें अनाज का संग्रह करता है । ये सब करप्शन है । ऐसे जन समुह को जीतना भारी पडता है । इस लिए कुटुम्ब प्रथा को तोड कर लिव इन रिलेशन और अस्थायी विकल्पों की और आदमी को मोडा जा रहा है ।    

मानवों को इतना निरंकुश बना देना है कि दो आदमी का साथमें रहना मुश्किल हो जाये ।   

(३) आदमी प्राणी है तो उसके पास प्रोपर्टी नही होनी चाहिए ।

एक जानवर के पास प्रोपर्टी कैसे हो सकती है ? साम्यवाद में प्रोपर्टी रखना मना है, सभी चीजें सरकारी होती है । नागरीक खूद सरकार की प्रोपर्टी है । आने वाले वैश्विक साम्यवाद में आदमी बच्चे का भी हक्कदार नही होगा । सरकार ही बच्चों की मालिक होगी, अपने हिसाब से पालन करेगी । उसकी निव डाली गयी हैं बच्चों को स्कूल में खाना खिलाकर । मांबाप को टेक्स और मेहंगाई और बेरोजगारी की मार से कमजोर कर के बच्चों पर वैसे ही दया नही दिखई है । नयी पिढी को सरकार की ऋणी बनाना है और माबाप से ज्याद सरकार ख्याल रखती है ऐसा एहसास दिलाना है ।

(४) मानव प्राणी है तो उसमें सोचविचार कर सके ऐसी बध्धि नही होनी चाहिए । 

आदमी की बुध्धि को सिमीत करने के लिए और अपने पक्ष मे करने के लिए स्कूलों में अभ्यासक्रमों को आसान किया जा रहा है और मोडा जा रहा है । सिर्फ एक अच्छा सा मजदूर बने ऐसे कोर्स चलाने हैं । अभी कपिल सिब्बल का बयान पढा था कि कोलेज से आर्ट्स और सायन्स के डिग्री कोर्स बंद करने हैं क्यों कि ये दोनो कोर्स नौकरियां नही दिलाते हैं ।

आदमी को बौध्धिक द्रष्टिसे बिलकुल हल्का फुल्का बनाने के लिए, उसकी शालिनता और गंभीरता मिटाने के लिए उसे जबरदस्ति हंसानेवाले कॉमेडी शो के नाम पर प्रोग्राम की लाईन लगी है । आदमी की जिन्दगी को ही कॉमेडी कर देना है, हंसते हंसते आदमी हर जुल्म सहता रहे आसपास क्या हो रहा है उसे पता ही ना रहे । सोच ही ना सके की ये जुर्म है या कुछ और, ये गुलामी है या आजादी ।  

(४) सदियों से मानव समुह धर्म और राज्य के कानून से कंट्रोल होता आया है । अब धर्म के बदले राज्य के कानून के साथ टेक्नोलोजी आ गई है । सेटेलाईट, रेडियो टेक्नोलोजी, इन्टरनेट और कोम्प्युटर की मदद से आदमी को कंट्रोल करना है । शुरुआत आधारकार्ड से हुई है । यह एक अनन्य नंबर है, आदमी नंबर, इस नंबर का आदमी पूरी दुनिया में और कोइ नही । वो नंबर कौन है, कहां रहता है, क्या कामधंधा करता है, उस के पास प्रोपर्टी या धन कितना है, पैसा किस किस बेन्कमें रखता है, क्या बिमारी है, ब्लडग्रूप, उसका डीएनए सेम्पल, दवाई की हिस्टरी, सब कुछ उस नंबर के साथ जोडा जायेगा । नागरिक के मालिकों को ये सब पता होना चाहिए । 

(५) आदमी जानवर है तो उसका कत्लेआम करना हो तो भी कोइ हर्ज नही । इसी नियम से सभी साम्यवादी देशों में करोडों का नरसंहार हुआ है । इसी नियम पर युएन का डिपोप्युलेश एजन्डा नंबर-२१ चल रहा है । 

सामाजिक डार्विनवाद भारतका

भारत का डार्विनवाद उपर के दोनों का मिश्रण है । गांधी, नेहरू, आंबेडकर और लोहिया जैसे नेताओं की देन है । जर्मनी में जब हिटलर का उदय हो रहा था तो लोहिया वहां पढते थे और यहुदियों की संगतमें डार्विनवाद सिख रहे थे । नाजियों की नजर नही पडी वरना लोहिया भी यहुदियों के साथ जेल में जाते ।

साम्यवाद भारत में चलनेवाला नही था तो लोहियाने बीचवाला रास्ता अपनाया । गरीब के पास यदी १०० रूपया है तो धनवान के पास अधिक से अधिक १००० रुपया होना चाहिए । धनवान नागरिक गरीब नागरिक से १० गुना ही अमीर बन सकता है । अगर धन ज्यादा है तो छीन कर गरिबों में बांट दिया जाना चाहिए । हम जानते हैं लोहिया का यह वाद चला नही है लिबर्टि या छुट के नाम बाजारवाद ही चला है ।

मानव संहार में भारत का समाजवाद भी पिछे नही है । आतंकवाद, नक्षली या इस्लामी को चलाये रख्खा है, वर्ग विग्रह को प्रायोजित किया जा रहा है । आदमी को भूख से मरने दिया जा रहा है ।

सुवर शब्द उपयोग करने का कारण यह फोटो और समाचार है ।

 

नई दिल्ली : एक ताजे अध्ययन में दावा किया गया है कि मनुष्य का जन्म नर सूअर और मादा चिंपैंजी के मिलन से हुआ। इस बात का दावा जॉर्जिया विश्वविद्यालय के जेनेसिस्ट यूजिन मैकार्थी ने अपने शोध में किया है। मैकार्थी पशुओं के संकर नस्ल पर विशेषज्ञता रखते हैं।

मैकार्थी ने अपने शोध में कहा है कि चिंपैंजी और मनुष्य में असमानताओं के साथ-साथ ढेर सारी समानताएं भी पाई जाती हैं। मैकार्थी के मुताबिक मनुष्य में चिंपैंजी और सूअर दोनों के लक्षण पाए जाते हैं। बंदरों और मनुष्य के बीच जो मुख्य अंतर है, वह सूअर के साथ वर्ण संकर की वजह से है।

चिंपैंजी और मनुष्य के जीन में बहुत सारी समानताएं होने के बावजूद दोनों की शारीरिक संरचना में मूलभूत अंतर पाया जाता है। इन अंतरों के कारण ही चिंपैंजी और मनुष्य अलग-अलग हैं और चिंपैंजी एवं मनुष्य के बीच अंतर की भरपाई सूअर के जीन द्वारा होती है।

मैकार्थी के मुताबिक रोंआहीन त्वचा, उसके नीचे सबक्यूटेनियस वसा का आवरण, हल्के रंग की आंखें, उभरी हुईं नाक, घनी भौंहें आदि सारी शारीरिक विशेषताएं सूअर से मिलती-जुलती हैं। मनुष्य की जो शारीरिक संरचनाएं चिंपैंजी से मेल नहीं खातीं, वे संरचनाएं सूअर से मेल खाती हैं।

मैकार्थी का दावा है कि सूअर के चमड़े का कोष और हृदय दोनों मनुष्य से मेल खाते हैं और चिकित्सा क्षेत्र में भी इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।  

मैकार्थी के अनुसार यह 'संकरायन प्रक्रिया' कई प्रजन्मों से चलती आ रही है। मैकार्थी का दावा है कि सूअर और चिंपैंजी के बीच 'बैक-क्रासिंग' भी चली और इसी प्रक्रिया में संततियों में जीन्स का जोड़-घटाव चलता रहा।

 बात समजमें आ गई ? ये सुवर की औलादें अब आदमी को सुवर की औलाद साबित करना चाहते हैं ।

सुवरों का विश्ववाद ( New world order)

उपर के सारे डार्विनवाद का उपयोग कर के आदमी को अपना गुलाम प्राणी बनाने के लिए उन सुवरोंने दुनिया के हर देश में अपने प्यादे बैठा रख्खे हैं । उन सुवर प्यादों में राजनेता है, छोटे छोटे धर्मों के नकली धर्म नेता है, बन बैठे समाजसेवि है, कला, साहित्य, लेखक, पत्रकार और मिडिया है, उद्योगपति और व्यापारी है । ये सभी मिलकर आदमी को एक ही दिशामें ले जा रहे हैं, धन माफियाओं की गुलामी की और ।

कहना है भारत माता की जय ! पर भारत माता के ही टुकडे करने हैं । कहना है हम सब एक है लेकिन हम में ही विभाजन करना और बनाये रखना है । भारत अखंड हो और हम एक हो तो उनके मालिक सुवरों के लिए हम सिरदर्द बन जाते हैं ।

राज्य से लेकर ग्राम पंचायत, गली महौल्ले पर स्वराज के नाम पर दिमकों को बैठा दो जनता का खून पीने के लिए, अलग अलग भागती स्वराज की इकाइयों से देश की अंदरूनी सिस्टम को इतना बिगाड दो की सरकार खूद कमजोर पड जाये दुश्मनो का आसान टार्गेट बनाने के लिए । ये सुवर के प्यादे असली दुश्मनो का नाम नही लेते देश की अंदर की बाबतों को ही कोसते रहते हैं । क्यों की दुश्मनो से ही धन पाते हैं, दुश्मन ही उनको लाईम लाईट में लाते हैं । 

सुवर के प्यादे टेक्स हटाने की लालच से नागरीक को समजाते हैं आप के धन पर आपका अधिकारी नही हैं, अपने घर पर नही रख सकते, हमारे मालिक के बेन्कों मे रख्खो । अपनी मरजी से किसी को नही दे सकते, दिया तो दंड देना होगा । 

क्या भारत का आदमी हकिकत में निर्बोध प्राणी बन गया है या मैंने उपर लिखा है और श्री प्रभुपादने मेरा समर्थन किया है ऐसा मानव है, सभी प्राणीयों से अलग इश्वर की एक विशेष रचना ?



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│  नरेन्द्र सिसोदिया
│  स्वदेशी प्रचारक, नई दिल्ली
│  http://narendrasisodiya.com
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